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Thursday 24 October 2019

बाबूजी को जन्मशती पर ' विजय विचार ' श्रद्धासुमन के रूप में समर्पित ------ विजय राजबली माथुर

जन्म:24-10-1919,दरियाबाद (बाराबंकी );मृत्यु:13-06-1995;आगरा  


हमारे बाबूजी स्व ताजराज बली माथुर  की जन्मपत्री के अनुसार 24 अक्तूबर 2019 को वह शतायु को प्राप्त करते। उनकी स्मृति में यह पुस्तक  ' विजय विचार ' श्रद्धासुमन के रूप में प्रस्तुत है ।
आज कुछ लोगों को यह प्रयास हास्यास्पद इसलिए लग सकता है क्योंकि आम धारणा है कि हमारा देश जाहिलों का देश था और हमें विज्ञान से विदेशियों ने परिचित कराया है। जबकि यह कोरा भ्रम ही है। वस्तुतः हमारा प्राचीन विज्ञान जितना  आगे था उसके किसी भी कोने तक आधुनिक विज्ञान पहुंचा ही नहीं है। हमारे पोंगा-पंथियों की मेहरबानी से हमारा समस्त विज्ञान विदेशी अपहृत कर ले गये और हम उनके परमुखापेक्षी बन गये ,इसीलिये मेरा उद्देश्य "अपने सुप्त ज्ञान को जनता जाग्रत कर सके " ऐसे आलेख प्रस्तुत करना है। मैं प्रयास ही कर सकता हूँ ,किसी को भी मानने या स्वीकार करने क़े लिये बाध्य नहीं कर सकता न ही कोई विवाद खड़ा करना चाहता हूँ । हाँ देश-हित और जन-कल्याण की भावना में ऐसे प्रयास जारी ज़रूर रखूंगा।   मैं देश-भक्त जनता से यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि,हमारी परम्परा में देश-हित,राष्ट्र-हित सर्वोपरी रहे हैं।
मेरे निष्कर्षों एवं दृष्टिकोण का लोगों द्वारा मखौल बनाने पर मैंने अपने माता-पिता से कहा था--एक दिन लोग इन पर डाक्टरेट हासिल करेंगें.मेरी छोटी बहन श्रीमती शोभा माथुर(पत्नी स्व कमलेश बिहारी माथुर,अवकाश-प्राप्त फोरमैन,बी.एच.ई.एल.,झाँसी) ने अपनी संस्कृत क़े राम विषयक नाटक की थीसिस में मेरे 'रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना 'को उधृत किया है.इस प्रकार माता-पिता क़े  जीवन काल में ही मेरे लेखों को आगरा विश्वविद्यालय से   डाक्टरेट हासिल करने में बहन ने प्रयोग कर लिया और मेरा अनुमान सही निकला।
सत्य,सत्य होता है और इसे अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता। एक न एक दिन लोगों को सत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा तथा ढोंग एवं पाखण्ड का भांडा फूटेगा ही फूटेगा.राम और कृष्ण को पूजनीय बना कर उनके अनुकरणीय आचरण से बचने का जो स्वांग ढोंगियों तथा पाखंडियों ने रच रखा है उस पर प्रहार करने का यह मेरा छोटा सा प्रयास था इसके आधार संत श्यामजी पाराशर लिखित पुस्तक 'रामायण का ऐतिहासिक महत्व' व डॉ रघुवीर शरण 'मित्र' लिखित खंड काव्य ' भूमिजा ' का अध्ययन रहे थे।
      सिलीगुड़ी से  बाबू जी को ट्रांसफर ऑर्डर न मिल पाने के कारण   सितम्बर 1967 में A T मेल से RESERVATION कराकर बैठा दिया। माँ को पहली बार हम तीनों भाई-बहनों को लेकर अकेले सफ़र करना था वह भी एक दम इतनी लम्बी दूरी का परन्तु उन्होंने कहीं भी साहस नहीं छोड़ा। गाड़ी लखनऊ चारबाग की छोटी लाइन पर पहुंची और बड़ी लाइन की गाड़ी से शाहजहांपुर जाना था। छोटी लाइन के कुली काली पोशाक पहनते थे और बड़ी लाइन के कुली लाल पोशाक.एक दूसरे के स्टेशनों में नहीं जाते थे। परन्तु छोटी लाइन का एक कुली भला निकल आया उसने छोटी लाइन से ले जा कर बड़ी लाइन से शाहजहांपुर को छूटने वाली पैसेंजर गाड़ी में सामान कई फेरों में ले जा कर पहुंचा दिया। शायद कुछ ज्यादा रु.लिए होंगे। वह कुली मुझे और अजय को सामान के साथ लाकर इंजन के ठीक पीछे वाले डिब्बे में बैठा गया। सामान ज्यादा था क्योंकि बाद में बाबू जी को अकेले आना था कितना सामान ला पते?कुली बीच में अकेला ही सामान ढो कर लाया और हम भाइयों के पास रख गया। तीसरी या चौथी बार के फेरे में माँ और शोभा भी आये;गाड़ी सीटी देने लगी थी,गार्ड ने हरी झंडी दिखा दी थी। कुली ने दौड़ लगा कर पटरियां फांद कर इंजन के सामने से सामान ला दिया और भाप इंजन के ड्राइवर को रुकने का इशारा किया जब माँ और शोभा डिब्बे में चढ़ गए तब कुली ने मेहनताना लिया और धीमी चलती गाड़ी से उतर गया। आज का ज़माना होता तो लम्बी गाड़ी में इंजन का हार्न और गार्ड की सीटी की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती और विद्युत् गति में गाड़ी दौड़ जाती। उस समय तक भलमनसाहत थी। वह अज्ञात कुली हम लोगों के लिए देवदूत समान था उसे  भी लाखों नमन।
वीरेंद्र चाचा ( न्यूयार्क प्रवासी बाबूजी के एक चचेरे भाई ) ने मुझसे 2016 में यहाँ मिलने पर मुझसे मेरे  कुछ विचारों को पुस्तक रूप में छ्पवा लेने का सुझाव दिया था। मेरी श्रीमतीजी पूनम को यह सुझाव काफी अच्छा  लगा , उनके सान्निध्य और पुत्र यशवंत के सक्रिय सहयोग से ये विचार पुस्तकाकार रूप ले सके हैं।यही हम सबकी ओर से बाबूजी को उनकी जन्मशती पर सादर श्रद्धांजली है।  

Wednesday 24 October 2018

संघर्ष और अभावों का जीवन था बाबूजी का ( जन्मदिन पर स्मरण ) ------ विजय राजबली माथुर

जन्म : 24-10-1919 को दरियाबाद , मृत्यु: 13-06-1995 को आगरा

संघर्ष और अभावों का जीवन था बाबूजी का ( जन्मदिन पर स्मरण ) 
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हमारे बाबूजी का जन्म 24-10-1919 को दरियाबाद, बाराबंकी में हुआ था और मृत्यु 13-06-1995 को आगरा में । बाबूजी जब चार वर्ष के ही थे तभी दादी जी नहीं रहीं और उनकी देख-रेख तब उनकी भुआ ने की थी। इसीलिए जब बाबूजी को बाबाजी ने जब पढ़ने के लिए काली चरण हाई स्कूल, लखनऊ भेजा तो वह कुछ समय अपनी भुआ के यहाँ व कुछ समय स्कूल हास्टल में रहे।

* भीखा लाल जी उनके सहपाठी और कमरे के साथी भी थे। जैसा बाबूजी बताया करते थे-टेनिस के खेल में स्व.अमृत लाल नागर जी ओल्ड ब्वायज असोसियेशन की तरफ से खेलते थे और बाबूजी उस समय की स्कूल टीम की तरफ से। स्व.ठाकुर राम पाल सिंह जी भी बाबूजी के खेल के साथी थे। बाद में जहाँ बाकी लोग अपने-अपने क्षेत्र के नामी लोगों में शुमार हुए ,हमारे बाबूजी 1939-45 के द्वितीय विश्व-युद्ध में भारतीय फ़ौज की तरफ से शामिल हुए।

** अमृत लाल नागर जी  हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हुए तो ठा.रामपाल सिंह जी  नवभारत टाइम्स ,भोपाल के सम्पादक। भीखा लाल जी पहले पी.सी एस. की मार्फ़त तहसीलदार हुए ,लेकिन स्तीफा देके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और प्रदेश सचिव भी रहे। बाबूजी को लगता था जब ये सब बड़े लोग बन गए हैं तो उन्हें पहचानेंगे या नहीं ,इसलिए फिर उन सब से संपर्क नहीं किया। एक आन्दोलन में आगरा से मैं लखनऊ आया था तो का.भीखा लाल जी से मिला था,उन्होंने बाबूजी का नाम सुनते ही कहा अब उनके बारे में हम बताएँगे तुम सुनो-उन्होंने वर्ष का उल्लेख करते हुए बताया कब तक दोनों साथ-साथ पढ़े और एक ही कमरे में भी रहे। उन्होंने कहा कि,वर्ल्ड वार में जाने तक की खबर उन्हें है उसके बाद बुलाने पर भी वह नहीं आये,खैर तुम्हें भेज दिया इसकी बड़ी खुशी है। बाद में बाबूजी ने स्वीकारोक्ति की कि, जब का.भीखा लाल जी विधायक थे तब भी उन्होंने बाबूजी को बुलवाया था परन्तु वह संकोच में नहीं मिले थे।

*** बाबूजी के फुफेरे भाई साहब स्व.रामेश्वर दयाल माथुर जी के पुत्र स्व कंचन ने (10 अप्रैल 2011 को मेरे घर आने पर) बताया कि ताउजी और बाबूजी दोस्त भी थे तथा उनके निवाज गंज के और साथी थे-स्व.हरनाम सक्सेना जो दरोगा बने,स्व.देवकी प्रसाद सक्सेना,स्व.देवी शरण सक्सेना,स्व.देवी शंकर सक्सेना। इनमें से दरोगा जी को 1964 में रायपुर में बाबाजी से मिलने आने पर व्यक्तिगत रूप से देखा था बाकी की जानकारी पहली बार प्राप्त हुई थी ।

**** बाबू जी ने खेती कर पाने में विफल रहने पर पुनः नौकरी तलाशना शुरू कर दिया। उसी सिलसिले में इलाहाबाद जाकर लौट रहे थे तब उनकी कं.के पुराने यूनिट कमांडर जो तब लेफ्टिनेंट कर्नल बन चुके थे और लखनऊ में सी.डब्ल्यू.ई.की पोस्ट पर एम्.ई.एस.में थे उन्हें इलाहाबाद स्टेशन पर मिल गए। यह मालूम होने पर कि बाबूजी पुनः नौकरी की तलाश में थे उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया। बाद में बाबूजी जब उनसे मिले तो उन्होंने स्लिप देकर एम्प्लोयमेंट एक्सचेंज भेजा जहाँ तत्काल बाबूजी का नाम रजिस्टर्ड करके फारवर्ड कर दिया गया और सी.डब्ल्यू ई. साहब ने अपने दफ्तर में उन्हें ज्वाइन करा दिया। घरके लोगों ने ठुकराया तो बाहर के साहब ने रोजगार दिलाया। सात साल लखनऊ,डेढ़ साल बरेली,पांच साल सिलीगुड़ी,सात साल मेरठ,चार साल आगरा में कुल चौबीस साल छः माह दुबारा नौकरी करके 30 सितम्बर 1978 को बाबू जी रिटायर हुए.तब से मृत्यु पर्यंत (13 जून 1995 )तक मेरे पास बी-560 ,कमला नगर ,आगरा में रहे। बीच-बीच में अजय की बेटी होने के समय तथा एक बार और बउआ के साथ फरीदाबाद कुछ माह रहे।

***** कुल मिला कर बाबूजी का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष और अभावों का रहा। लेकिन उन्होने कभी भी ईमान व स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। मैं अपने छोटे भाई-बहन की तो नहीं कह सकता परंतु मैंने तो उनके इन गुणों को आत्मसात कर रखा है जिनके परिणाम स्वरूप मेरा जीवन भी संघर्षों और अभावों में ही बीता है जिसका प्रभाव मेरी पत्नी व पुत्र पर भी पड़ा है।चूंकि बाबूजी अपने सभी भाई-बहन में सबसे छोटे थे और बड़ों का आदर करते थे इसलिए अक्सर नुकसान भी उठाते थे। हमारी भुआ उनसे अनावश्यक दान-पुण्य करा देती थीं। अब उनकी जन्म-पत्री के विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि इससे भी उनको जीवन में भारी घाटा उठाना पड़ा है। उनकी जन्म-कुंडली में ब्रहस्पति 'कर्क' राशिस्थ है अर्थात 'उच्च' का है अतः उनको मंदिर या मंदिर के पुजारी को तो भूल कर भी 'दान' नहीं करना चाहिए था किन्तु कोई भी पोंगा-पंडित अधिक से अधिक दान करने को कहता है फिर उनको सही राह कौन दिखाता? वह बद्रीनाथ के दर्शन करने भी गए थे और जीवन भर उस मंदिर के लिए मनी आर्डर से रुपए भेजते रहे। इसी वजह से सदैव कष्ट में रहे। 1962 में वृन्दावन में बिहारी जी के दर्शन करके लौटने पर बरेली के गोलाबाज़ार स्थित घर पहुँचने से पूर्व ही उनके एक साथी ने नान फेमिली स्टेशन 'सिलीगुड़ी' ट्रांसफर की सूचना दी। बीच सत्र में शाहजहांपुर में हम लोगों का दाखिला बड़ी मुश्किल से हुआ था।

****** बाबूजी के निधन के बाद जो आर्यसमाजी पुरोहित शांति-हवन कराने आए थे उनके माध्यम से मैं आर्यसमाज, कमलानगर- बल्केश्वर, आगरा में शामिल हो गया था और कार्यकारिणी समिति में भी रहा। किन्तु ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध व्यापक संघर्ष चलाने वाले स्वामी दयानन्द जी के आर्यसमाज संगठन में आर एस एस वालों की घुसपैठ देखते हुये संगठन से बहुत शीघ्र ही अलग भी हो गया था परंतु पूजा पद्धति के सिद्धान्त व नीतियाँ विज्ञान-सम्मत होने के कारण अपनाता हूँ।

******* मेरे पाँच वर्ष की आयु से ही बाबूजी 'स्वतन्त्र भारत' प्रति रविवार को ले देते थे। बाद में बरेली व मेरठ में दफ्तर की क्लब से पुराने अखबार लाकर पढ़ने को देते थे जिनको उसी रोज़ रात तक पढ्ना होता था क्योंकि अगले दिन वे वापिस करने होते थे, पुराने मेगजीन्स जैसे धर्मयुग,हिंदुस्तान,सारिका,सरिता आदि पूरा पढ़ने तक रुक जाते थे फिर दूसरे सप्ताह के पुराने पढ़ने को ला देते थे। अखबार पढ़ते-पढ़ते अखबारों में लिखने की आदत पड़ गई थी। इस प्रकार कह सकता हूँ कि आज के मेरे लेखन की नींव तो बाबूजी द्वारा ही डाली हुई है। इसलिए जब कभी भूले-भटके कोई मेरे लेखन को सही बताता या सराहना करता है तो मुझे लगता है इसका श्रेय तो बाबूजी को जाता है क्योंकि यह तो उनकी 'दूरदर्शिता' थी जो उन्होने मुझे पढ़ने-लिखने का शौकीन बना दिया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये अब तेईस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनके विचार और सिद्धान्त आज भी मेरा 'संबल' बने हुये हैं।

Saturday 24 October 2015

ईमान व स्वाभिमान का प्रतीक : ताजराज बली माथुर ------ विजय राजबली माथुर


**जन्मदिन 24 अक्तूबर पर एक स्मरण बाबूजी का :
(ताज राजबली माथुर : जन्म 24 -10-1919 मृत्यु 13-06-1995 )
हमारे बाबूजी का जन्म 24-10-1919 को दरियाबाद, बाराबंकी में हुआ था और मृत्यु 13-06-1995 को आगरा में । बाबूजी जब चार वर्ष के ही थे तभी दादी जी नहीं रहीं और उनकी देख-रेख तब उनकी भुआ ने की थी। इसीलिए जब बाबूजी को बाबाजी ने जब पढ़ने के लिए काली चरण हाई स्कूल, लखनऊ भेजा तो वह कुछ समय अपनी भुआ के यहाँ व कुछ समय स्कूल हास्टल में रहे। 

भीखा लाल जी उनके सहपाठी और  कमरे के साथी भी थे। जैसा बाबूजी बताया करते थे-टेनिस के खेल में स्व.अमृत लाल नागर जी ओल्ड ब्वायज असोसियेशन की तरफ से खेलते थे और बाबूजी उस समय की स्कूल टीम की तरफ से। स्व.ठाकुर राम पाल सिंह जी भी बाबूजी के खेल के साथी थे। बाद में जहाँ बाकी लोग अपने-अपने क्षेत्र के नामी लोगों में शुमार हुए ,हमारे बाबूजी 1939-45  के द्वितीय  विश्व-युद्ध में भारतीय फ़ौज की तरफ से शामिल हुए। 

अमृत लाल नागर जी हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हुए तो ठा.रामपाल सिंह जी नवभारत टाइम्स ,भोपाल के सम्पादक। भीखा  लाल जी पहले पी.सी एस. की मार्फ़त तहसीलदार हुए ,लेकिन स्तीफा देके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और प्रदेश सचिव भी रहे। बाबूजी को लगता था  जब ये सब बड़े लोग बन गए हैं तो उन्हें पहचानेंगे या नहीं ,इसलिए फिर उन सब से संपर्क नहीं किया। एक आन्दोलन में आगरा से मैं लखनऊ आया था तो का.भीखा  लाल जी से मिला था,उन्होंने बाबूजी का नाम सुनते ही कहा अब उनके बारे में हम बताएँगे तुम सुनो-उन्होंने वर्ष का उल्लेख करते हुए बताया कब तक दोनों साथ-साथ पढ़े और एक ही कमरे में भी रहे। उन्होंने कहा कि,वर्ल्ड वार में जाने तक की खबर उन्हें है उसके बाद बुलाने पर भी वह नहीं आये,खैर तुम्हें भेज दिया इसकी बड़ी खुशी है। बाद में बाबूजी ने स्वीकारोक्ति की कि, जब का.भीखा लाल जी विधायक थे तब भी उन्होंने बाबूजी को बुलवाया था परन्तु वह संकोच में नहीं मिले थे। 


बाबूजी के फुफेरे भाई साहब स्व.रामेश्वर दयाल माथुर जी के पुत्र कंचन ने (10  अप्रैल 2011  को मेरे घर आने पर) बताया कि ताउजी और बाबूजी  दोस्त भी थे तथा उनके निवाज गंज के और साथी थे-स्व.हरनाम सक्सेना जो दरोगा बने,स्व.देवकी प्रसाद सक्सेना,स्व.देवी शरण सक्सेना,स्व.देवी शंकर सक्सेना। इनमें से दरोगा जी को 1964  में रायपुर में बाबाजी से मिलने आने पर व्यक्तिगत रूप से देखा था बाकी की जानकारी पहली बार प्राप्त हुई थी । 



बाबू जी ने खेती कर पाने में विफल रहने पर पुनः नौकरी तलाशना शुरू कर दिया। उसी सिलसिले में इलाहाबाद जाकर लौट रहे थे तब उनकी कं.के पुराने यूनिट कमांडर जो तब लेफ्टिनेंट कर्नल बन चुके थे और लखनऊ में सी.डब्ल्यू.ई.की पोस्ट पर एम्.ई.एस.में थे उन्हें इलाहाबाद स्टेशन पर मिल गए। यह मालूम होने पर कि बाबूजी  पुनः नौकरी की तलाश में थे उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया। बाद में बाबूजी जब उनसे मिले तो उन्होंने स्लिप देकर एम्प्लोयमेंट  एक्सचेंज भेजा जहाँ तत्काल बाबूजी का नाम रजिस्टर्ड करके फारवर्ड कर दिया गया और सी.डब्ल्यू ई. साहब ने अपने दफ्तर में उन्हें ज्वाइन करा दिया।  घरके लोगों ने ठुकराया तो बाहर के साहब ने रोजगार दिलाया। सात साल लखनऊ,डेढ़ साल बरेली,पांच साल सिलीगुड़ी,सात साल मेरठ,चार साल आगरा में कुल  चौबीस साल छः माह  दुबारा नौकरी करके 30  सितम्बर 1978  को बाबू जी रिटायर हुए.तब से मृत्यु पर्यंत (13  जून 1995 )तक मेरे पास बी-560  ,कमला नगर ,आगरा में रहे। बीच-बीच में अजय की बेटी होने के समय तथा एक बार और बउआ  के साथ फरीदाबाद कुछ माह रहे। 

कुल मिला कर बाबूजी का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष और अभावों का रहा। लेकिन उन्होने कभी भी ईमान व स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। मैं अपने  छोटे भाई-बहन की तो नहीं कह सकता परंतु मैंने तो उनके इन गुणों को आत्मसात कर रखा है जिनके परिणाम स्वरूप मेरा जीवन भी संघर्षों और अभावों में ही बीता है जिसका प्रभाव मेरी पत्नी व पुत्र  पर भी पड़ा है।चूंकि बाबूजी अपने सभी भाई-बहन में सबसे छोटे थे और बड़ों का आदर करते थे इसलिए अक्सर नुकसान भी उठाते थे। हमारी भुआ उनसे अनावश्यक दान-पुण्य करा देती थीं। अब उनकी जन्म-पत्री के विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि इससे भी उनको जीवन में भारी घाटा उठाना पड़ा है। उनकी जन्म-कुंडली में ब्रहस्पति 'कर्क' राशिस्थ है अर्थात 'उच्च' का है अतः उनको मंदिर या मंदिर के पुजारी को तो भूल कर भी 'दान' नहीं करना चाहिए था किन्तु कोई भी पोंगा-पंडित अधिक से अधिक दान करने को कहता है फिर उनको सही राह कौन दिखाता? वह बद्रीनाथ के दर्शन करने भी गए थे और जीवन भर उस मंदिर के लिए मनी आर्डर से रुपए भेजते रहे। इसी वजह से सदैव कष्ट में रहे। 1962 में वृन्दावन में बिहारी जी के दर्शन करके लौटने पर बरेली  के गोलाबाज़ार स्थित घर पहुँचने से पूर्व ही उनके एक साथी ने नान फेमिली स्टेशन 'सिलीगुड़ी' ट्रांसफर की सूचना दी। बीच सत्र में शाहजहांपुर में हम लोगों का दाखिला बड़ी मुश्किल से हुआ था।  

बाबूजी के निधन के बाद जो आर्यसमाजी पुरोहित शांति-हवन कराने आए थे उनके माध्यम से मैं आर्यसमाज, कमलानगर- बल्केश्वर, आगरा में शामिल हो गया था और कार्यकारिणी समिति में भी रहा। किन्तु ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध व्यापक संघर्ष चलाने वाले स्वामी दयानन्द जी के आर्यसमाज संगठन में आर एस एस वालों की घुसपैठ देखते हुये संगठन से बहुत शीघ्र ही अलग भी हो गया था परंतु  पूजा पद्धति के सिद्धान्त व नीतियाँ विज्ञान-सम्मत होने के कारण अपनाता हूँ।  

मेरे पाँच वर्ष की आयु से ही बाबूजी 'स्वतन्त्र भारत' प्रति रविवार को ले देते थे। बाद में बरेली व मेरठ में दफ्तर की क्लब से पुराने अखबार लाकर पढ़ने को देते थे जिनको उसी रोज़ रात तक पढ्ना  होता था क्योंकि अगले दिन वे वापिस करने होते थे,  पुराने मेगजीन्स जैसे धर्मयुग,हिंदुस्तान,सारिका,सरिता आदि पूरा पढ़ने तक रुक जाते थे फिर दूसरे सप्ताह के पुराने पढ़ने को ला देते थे। अखबार पढ़ते-पढ़ते अखबारों में लिखने की आदत पड़ गई थी। इस प्रकार कह सकता हूँ कि आज के मेरे लेखन की नींव तो बाबूजी द्वारा ही डाली हुई है। इसलिए जब कभी भूले-भटके कोई मेरे लेखन को सही बताता या सराहना करता है तो मुझे लगता है इसका श्रेय तो बाबूजी  को जाता है क्योंकि यह तो उनकी 'दूरदर्शिता' थी जो उन्होने मुझे पढ़ने-लिखने का शौकीन बना दिया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये बीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनके विचार और सिद्धान्त आज भी मेरा 'संबल' बने हुये हैं।  
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